आँखों का धोखा,
मंजिल
समझने की भूल,
जिसे अक्सर कर जाते है,
ठोकर लगनी होती है जहाँ ,
चाह कर भी नहीं संभल पाते है.
लड़खड़ाते है,
गिरते है ,
और
फिर उठ कर चल देते है .
यंत्रवत,
उसी राह पर ,
बंद होठों की पीड़ा
और दर्द ,
स्वयं ही आत्मसात कर ,
जैसे जो कुछ हुआ,
वह कुछ नया नहीं है ,
भुला देते है ,
जल्द ही बड़ी से बड़ी ठोकर ,
और दर्द का अहसास ,
और ,
फिर भटकने लगते है ,
नयी मरीचिकाओं के बीच .........
मंजिल
समझने की भूल,
जिसे अक्सर कर जाते है,
ठोकर लगनी होती है जहाँ ,
चाह कर भी नहीं संभल पाते है.
लड़खड़ाते है,
गिरते है ,
और
फिर उठ कर चल देते है .
यंत्रवत,
उसी राह पर ,
बंद होठों की पीड़ा
और दर्द ,
स्वयं ही आत्मसात कर ,
जैसे जो कुछ हुआ,
वह कुछ नया नहीं है ,
भुला देते है ,
जल्द ही बड़ी से बड़ी ठोकर ,
और दर्द का अहसास ,
और ,
फिर भटकने लगते है ,
नयी मरीचिकाओं के बीच .........
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