Sunday, March 22, 2020

आपका काम तमाम

चुनाव प्रचार में, 

बोले एक नेता,
बेरोजगार मैं भी हूं,
मुसीबतों का मारा हुआ,
काम जब मिला नहीं, 
चुनाव में खड़ा हुआ.
मेरी हालत पर, 
सब लोग रहम कीजिए, 
वोट ना सही, चंदा ही दीजिए
आपकी सब बातें, 
अक्सर भूल जाता हूं,
पर आप का चुनाव चिन्ह, 
याद दिलाता हूं
कोचिंग दलबदल की, 
अच्छी चलाता हूं,
कुछ नहीं दे सका, 
विश्वास तो  दिलाता हूं,
नौकरी नहीं,
तो आरक्षण जरूर दूंगा,
आप मेरा काम करिये,
"आपका काम तमाम" 
कर दूंगा
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- शिव प्रकाश मिश्रा 
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मूल कृति १२ जुलाई १९७९ 
(प्रथम प्रकाशित दैनिक वीर हनुमान औरैय्या )

भीड़


चारों तरफ भीड़ है,
मनुष्यों का रेला,
सड़कों पर बिखरा है
शोरगुल में खड़ा हूँ मैं ,
किसी को पुकारता हूं,
पर -
मेरी आवाज शोर में घुल रही है ,
शायद कोई नहीं सुन सकता,
रूप, रंग,गंध और बोली-भाषा ,
सब नकली है,
कोई नहीं मिल सकता,
नहीं समझता,
सब ये  कैसे करते हैं ?
इतनी बनावट
और इतनी मिलावट ,
कैसे सहते  हैं ?
नहीं चाहता,
कोई मुझे प्यार करें,
पर मेरी भावनाओं का,
तिरस्कार न करें,
जरूरी नहीं,
कोई  मेरा अनुयायी हो,
मैं भी चल सकता हूँ ,
उसके पीछे,
उसके साथ,
कोई भी हो ?
जो मुझे समझे,
और समझाये,
पर -
व्यर्थ  के विचार मुझ पर न लादे,
क्योंकि -
मुझे रोशनी चाहिए
सिर्फ चमक  नहीं ....
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 -  शिव प्रकाश मिश्रा
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           मूल कृति १८ फरवरी, १९८३ 
(सर्व प्रथम स्वंतंत्र भारत कानपुर  में प्रकाशित) 

लक्ष्मण - रेखा


आज में उपेक्षित हूं,
समाज के घेरे से,
बाहर खड़ा,
क्षुब्ध हो सोंचता हूं,
कितनी बिषैली,
पर वास्तविकता  है ये ,
विष्मय,
विषाद,
या उपेक्षा में सोचता हूं,
भावनाओं में,
कुछ  ज्यादा ही बह गया था मैं ,
या किसी ने अपने विचारों में,
जान बूझ कर,
इतना ऊंचा उठा दिया था,
कि गिर कर
मैं उठ भी न सकूं,
और उनकी ज्यादितियों  का,
प्रतिकार भी न कर सकूँ,
मैं गिरा तो जरूर,
पर चल पड़ा उठ कर,
शीघ्र ही,
मै तैयार था इसलिए , 
जो हुआ उसके लिए, 
तभी तो मेरा,
तिरस्कार हुआ है,
मेरी  हर हसरत  पर,
उन्हें संसय  है,
कहीं मैं,
कोई वितंडा न बना दूं ?
उनके कलमस की कहानी,
ओंठों पर न ला दूं,
तभी तो करते हैं,
हर रोज,
एक नई व्यूह रचना,
क्या  यही लक्ष्मण  रेखा है ?
यो कोरी विडम्बना ?
****************
 - शिव प्रकाश मिश्रा
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       मूल कृति १७ अप्रैल १९८१
( सर्वप्रथम दिनरात इटावा में  प्रकाशित)


भविष्य ......


कैसे मुस्कान हो ?
निरद्वेग अधरों पर,
बादलों सा मिलना,
निकलना भी छूट गया .

जीवन के कतिपय अंश,
स्वस्ति के लिए हव्य,
आशातीत बेड़ा एक,
सपना सा टूट गया ..

कच्ची पगडंडी सी,
किस्मत की रेखाएं,
धूमिल आशाओं में,
वर्तमान भटक गया.

अतीत के दलदल में
डूबती रहीं तस्वीरें ,
कल्पना का यान,
जीर्ण दूब में अटक गया ..

शक्ति के समन्वय में,
शान्ति के प्रणेता से,
वर्षों का खोटा सिक्का,
 गांठ से निकल गया ..
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- शिव प्रकाश मिश्रा
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मूल कृति १० सितम्बर १९८०
(सर्व प्रथम स्वतंत्र भारत कानपुर में पकाशित )

पहली बात ...आख़िरी बार .

मर चुका हूं मैं,
कभी का,
मातम नहीं मनाता कोई,
जिज्ञासु सा,
खुद रो रहा हूं,
ढांढस नहीं बंधाता कोई,
मेरी लाश,
न जाने कब से ?
अकेली पड़ी है,
सुनते सभी हैं,
समझते सभी हैं,
पर
जरूरत क्या पड़ी है?
जो कोई
निस्वार्त के पास आए,
मनुष्यत्व,
अपनत्व,
या कोरी औपचारिकता,
ही निभाये,
और
मेरी लाश पर,
मेरा ही कफन ओढ़ाए,
यद्यपि
हमें कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर
हमारा.. उनसे ?
कोई योग तो नहीं है,
कहते हैं वे,
“सिरफिरा हूं मैं” ,
यद्यपि उनके लिए ही
मरा हूं मैं,
और
फिर मर सकता हूं,
कई बार उन सबके लिए,
पर
क्या ?
कोई ?
उनके लिए,  
जीने की कल्पना कर सकता है?
अपने लिए ?
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शिव प्रकाश मिश्रा
मूल कृति २८ जून १९८०

Saturday, March 21, 2020

दो आंखें




दो आंखें,
निरन्तर,
मेरा पीछा करती हैं. 
हड़बड़ाहट और बेचैनी में, 
अधजली सिगरेट सी,
छोड़ देता हूं,
अपनी यादें,
रह रह कर,
जो मेरे अन्दर बुझती है,
और
फिर सुलगती है.
मसल देता हूँ ,
कभी  खुद ही उन्हें,
अपलक  चाहता हूं निहारना,
दिन में कई बार जिन्हें,
धुएं की तरह खो जाती है,
उनकी बहुमूल्य जवानी,
स्वतन्त्र अस्तित्व,
और बिखर जाती है,
सजी संवरी  कहानी,
शब्दों की सांत्वना में मिलती हैं, 
समाज की भोंड़ी  सलाखें,
मूक हूँ,
निगूढ़ हूँ,
वहीं खड़ा हूँ,
मैं,
और मेरे पीछे हैं
दो  आंखें..
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      - शिव प्रकाश मिश्रा 
        मूल कृति - २८ मई १९८०