चारों तरफ भीड़ है,
मनुष्यों
का रेला,
सड़कों
पर बिखरा है
शोरगुल
में खड़ा हूँ मैं ,
किसी
को पुकारता हूं,
पर
-
मेरी
आवाज शोर में घुल रही है ,
शायद
कोई नहीं सुन सकता,
रूप,
रंग,गंध और बोली-भाषा ,
सब नकली है,
कोई
नहीं मिल सकता,
नहीं
समझता,
सब
ये कैसे करते हैं ?
इतनी
बनावट
और
इतनी मिलावट ,
कैसे
सहते हैं ?
नहीं
चाहता,
कोई
मुझे प्यार करें,
पर
मेरी भावनाओं का,
तिरस्कार
न करें,
जरूरी
नहीं,
कोई
मेरा अनुयायी हो,
मैं
भी चल सकता हूँ ,
उसके
पीछे,
उसके
साथ,
कोई
भी हो ?
जो
मुझे समझे,
और
समझाये,
पर
-
व्यर्थ
के विचार मुझ पर न लादे,
क्योंकि
-
मुझे
रोशनी चाहिए
सिर्फ
चमक नहीं ....
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- शिव
प्रकाश मिश्रा
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मूल कृति १८ फरवरी, १९८३ (सर्व प्रथम स्वंतंत्र भारत कानपुर में प्रकाशित)
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