Sunday, March 22, 2020

भीड़


चारों तरफ भीड़ है,
मनुष्यों का रेला,
सड़कों पर बिखरा है
शोरगुल में खड़ा हूँ मैं ,
किसी को पुकारता हूं,
पर -
मेरी आवाज शोर में घुल रही है ,
शायद कोई नहीं सुन सकता,
रूप, रंग,गंध और बोली-भाषा ,
सब नकली है,
कोई नहीं मिल सकता,
नहीं समझता,
सब ये  कैसे करते हैं ?
इतनी बनावट
और इतनी मिलावट ,
कैसे सहते  हैं ?
नहीं चाहता,
कोई मुझे प्यार करें,
पर मेरी भावनाओं का,
तिरस्कार न करें,
जरूरी नहीं,
कोई  मेरा अनुयायी हो,
मैं भी चल सकता हूँ ,
उसके पीछे,
उसके साथ,
कोई भी हो ?
जो मुझे समझे,
और समझाये,
पर -
व्यर्थ  के विचार मुझ पर न लादे,
क्योंकि -
मुझे रोशनी चाहिए
सिर्फ चमक  नहीं ....
******************
 -  शिव प्रकाश मिश्रा
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           मूल कृति १८ फरवरी, १९८३ 
(सर्व प्रथम स्वंतंत्र भारत कानपुर  में प्रकाशित) 

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