ऊपर से नीचे तक कोयला से लिसे हुए,
सघन धूम्र बादलों में पटरियों पर झुके हुए,
मरने कटने से बेफिक्र गाड़ियों में घुसे हुए
छानते हैं खाक, खांस कोयला उठाते हुए ,
या फिर बस्ती से दूर, होते हैं जहां गंदगी के ढेर,
चीथड़े लपेट, वही चीथड़े उठाते हैं,
घाव को मक्खियों से फटे कपड़ों में बचाते हुए,
गंदगी कुरेद कांच कागज उठाते हैं,
कबाड़ के साथ साथ हैजा और तपेदिक भी
आते हैं लेकर साथ मजबूरियों से घिरे हुए,
चौराहों पर कई बार होती जब बत्ती लाल,
दौड़ते हैं एक साथ साफ करने मोटर कपड़ा लिए
या फिर छोटे बड़े होटलों में, करते हैं बर्तन साफ,
बची हुई जूठन और मालिक की मार कई बार खाते हैं,
जोड़ते हैं पंचर, या फिर कसते हैं नट बोल्ट,
करते हैं काम, फिर भी पुर्जों के साथ आंखें भी पोंछते हैं,
करते हैं घर का काम बर्तन से झाड़ू तक,
मालिकन के पैर दबाकर बच्चे भी खिलाते हैं,
बच्चों को करने लेने स्कूल तक जाते रोज,
पर स्कूल तक जाकर भी निरक्षर रह जाते हैं,
बेबस जिंदगी के सताये, उमंगों से डरे हुए,
दलित शोषित सभ्यता से परे कौन बच्चे हैं ये आप सोचेंगे,?
तो सुनो ये हैं कर्णधार भारत स्वाधीन के,
अपने समाज में कहीं भी जाएं आप, हर जगह मिलेंगे.
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- शिव मिश्रा
मूलकृति १४ नवम्बर १९७६
अमर उजाला आगरा में प्रकाशित