Tuesday, February 23, 2016

तपन सब मुझ में समाई है,

भयंकर शीत लहरी भी करे क्या,
          तपन सब मुझ में समाई है,

सूर्य की आंच में रखा है क्या,
        आग  अब  दिल में जलाई है,

चित्रकारों  से बनेगा क्या,
            राशि अंतर में  बसाई  है,

बेला, चमेली में अब बचा क्या है
         सुगंध सब मन  में समाई है,

गमों का ज्वालामुखी फूटे तो क्या,

        खुशी जब  रग-रग में छाई है,

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            शिव प्रकाश मिश्रा

                मूल कृति अप्रैल १९७८ 
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सिर्फ तेरा साथ हो..

जुल्फों की छाँव में,
 सपनो के गाँव में,
 अधरों को ढूड़ता,
 नन्हा सौगात हो.

घर में जमात में ,
दिल में दवात में,
 बचपन से खेलता,
जवानी का हाथ हो.

आँखों से आँखों में,
 टूटती सांसो में ,
कस्तूरी महकते  ,
अपने जजबात हों .

सावन के झूलों में,
 वर्षा की बूंदों में,
 प्रेम से भीगते  ,
हम  एक  साथ हों ..
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शिव प्रकाश मिश्र
  मूल कृति अगस्त १९८१ 
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रोज़ी और रोटी

मेरी कहानी
बिखर रही है,
स्वप्निल प्रासाद में,
रोशनी खुद भटक रही है,
कांप रहा है मेरा भविष्य,
मेरे ही हांथो में.
जान बूझ कर
डालता है कोई,  गरम रेत,
मेरे फूटे हुए छालो में.
विचारो के वातायन से
गिर रहा हूँ मै,
धरती पर,
पग पग पर,
ठोकर ,
और
हर ठोकर पर
वास्तिविकता का एक नया अनुभव.
आ पड़ा है मेरे दिल पर
एक भारी भरकम बोझ अनायास ही,
असंतुलित से कदम,
पड़ रहे है,
कहीं के कहीं.
मिल रही है,
कृतिमता,छुद्रता और समस्याओं की
असहनीय चिकौटी,
मेरे नेत्रों के धुंधलके में,
चमक रहे है सिर्फ दो शब्द,
रोज़ी और रोटी.........!
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     शिव प्रकाश मिश्र
    मूल कृति मई 1980
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आज का इन्सान

सरे  बाज़ार में  इमान  धरम बेच  रहे है,
बोलिया बोल कर इन्सान का मन बेच रहे है !
रक्त अधरों पे उदित हास क्या करे  कोई,
साजे गम फ़ख्र के आने की तपन देख रहे हैं !!

मांगने पर नहीं मिलता था कभी कुछ जिनसे,
धरम के नाम पर आकर के रहम बेंच रहें हैं !
आश भगवान    से  इन्सान क्या    करें कोई,
आज इन्सान ही इन्सान को  खुद बेंच रहे हैं !!
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-----  शिव प्रकाश मिश्र -------------
         मूल कृति मई १९८३ 
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बेरोजगार नेता

चुनाव प्रचार में
बोले एक नेता
बेरोजगार मै भी हूँ,
मुशीबतो का मारा हुआ.
काम जब मिला नहीं,
चुनाव में खड़ा हुआ ..
मेरी हालत पर,
सब लोग रहम कीजिये.
वोट न सही चंदा ही दीजिये..
आपकी सब बातें,
अक्सर भूल जाता हूँ.
पर आपका चुनाव चिन्ह,
याद दिलाता हूँ..
कोचिंग दल बदल की अच्छी चलाता हूँ,
कुछ नहीं दे सका विश्वास तो दिलाता हूँ..
नौकरी नहीं तो आरक्षण
जरूर दूंगा,
आप मेरा काम करिए
आपका काम तमाम
कर दूंगा..
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 - शिव प्रकाश मिश्र
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मूल कृति मार्च 1980

कोई खयालो में क्यों..... नहीं ....होता ....?

आसमां  क्यों नहीं झुकता,
समुंदर क्यों नहीं थमता,
प्रेम का अंकुर पनप कर ,
हिमालय क्यों नहीं होता?



चांदनी मन में खटकती,
हवा तन मन को झुलसती,
कूक कोयल की न भाए,
मेघ सावन में रुलाएं,
कोई भी मौसम यहाँ पर ,
सुहाना क्यों नहीं होता ?



पंथ लम्बा भ्रमित राही,
दर्द बन कर घटा छाई,
उष्ण बालू फटे छाले ,
कौन पीड़ा को संभाले,
कोई भी अपना यहाँ पर,
अपना क्यों नहीं होता ?


नेह के बंधन जटिल है ,
नीड़  में पंछी बिकल है,
जिंदगी का क्या ठिकाना,
खो गया है आशियाना,
प्रेम का आँचल यहाँ पर,
बसेरा क्यों नहीं होता ?


नींद पलकों में नहीं है ,
ख्वाब है न इंतजार,
मन  है व्याकुल,
 तन सुलगता ,
दिल बहकता बार बार,
कोई आकर ख्यालो में,
हमारा क्यों नहीं होता ?


***** शिव प्रकाश मिश्र******
                मूल कृति फरबरी 1980

बदनुमा दाग हूँ मै !

छोड़ दो  साथ  अब मेरा एक बुझता चिराग हूँ मै,
नहीं भाता   किसी को वह बदनुमा     दाग हूँ मै,
यही दुर्भाग्य है मेरा    न आया काम     कुछ तेरे,
सिवा दुःख दर्द  गम के   नहीं  था पास कुछ मेरे,
आज  चाहो  तो मुझे  अंतिम मधुर मुस्कान दे दो,
दिया हो ना  किसी को या  वही   अपमान दे दो,
अँधेरी  वादियों में भटकता विरह का राग  हूँ  मैं,
नहीं भाता    किसी को वह   बदनुमा दाग हूँ  मै !  ......१....

आत्मा पर बोझ बन कर, चाह कर भी न बोल पाया,
रिस रहे घाव अंतर में ,कभी उनसे नहीं  पर्दा उठाया,
आज   चाहे इस तपस्या का  यहीं अवसान कर  दो,
कहूँगा    कुछ     नहीं  चाहे   मुझे  बदनाम कर दो,
नहीं      बुझती  कभी,     ऐसी सुलगती  आग हूँ मैं,
नहीं  भाता   किसी    को  वह  बदनुमा   दाग हूँ मै !!   .....२....
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          - शिव प्रकाश मिश्र
             मूल कृति जुलाई १९८० 
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कैसे.. कैसे.. लोग

खुद मरने की मन्नत मनाते हैं लोग,
हंसते हंसते भी रोते से रहते है लोग .

सूना घर है कहीं,  कोई रहने वाला नहीं  ,
छत में रहने को कितने तरसते हैं  लोग.

कोई  अपना नहीं,  कोई     सपना नहीं,
कितने अपने भी सपने से लगते हैं, लोग.

फासले हैं  बहुत फिर भी  कितने करीब ,
कितने अपनो    से दूरी बनाते   हैं लोग .

क्यों ज़नाज़ा गया ? जानते  हैं  सभी,
फिर भी मरने से कितना डरते हैं लोग.

ऐ सितम अब शिव पर क्या भरोसा करे,
अपनी छाया से भी अक्सर डरते हैं लोग..
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             - शिव प्रकाश मिश्र
_____________मूल कृति जून १९८० _________
सर्व प्रथम दैनिक वीर हनुमान औरैया में प्रकाशित 


हड़ताल ....... सूखा

होकर परेशान,
 महगाई भत्ते से,
 वर्षा विभाग सहित,
 इन्द्र ने कर दी हड़ताल,
सूखे की आग में,
 जलती फसलो को जैसे
घर में श्मसान देख,
 जनता हो गयी बेहाल .
आवश्यक सेवाओं में भी,
 अब तो हड़ताल होने लगी है,
नजरबंदी में
जमाखोरी की आदत बनी है.
हे इन्द्र देव !
अब तो दया कर दो,
कण्ट्रोल से न सही,
ब्लैक में ही,
वर्षा कर दो !!
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    - शिव प्रकाश मिश्र
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मूल कृत - १९७९, ६ नवम्बर १९७९ को दैनिक वीर हनुमान औरय्या में प्रकाशित 

सूखा और किसान

कुछ कह रहे हैं,
सूखे की आग में
जलती फसलो को देख,
जी को जला कर
 जी रहे है.
डीजल केरोसीन डीलरो की तरह
इन्द्र का स्टॉक में नहीं है की तख्ती देख
 रो रहे हैं.
भूख से बिलखते सिसकते आदिवासी,
 बेबस मजबूरी में
जड़े ही खा रहें है,
करके हड़ताल  नज़रबंदी में,
 नशा बंदी में ,
भंग छान ,
मस्ती में लम्बी तान,
 इन्द्र अब भी सो रहे हैं !!
____________________
     - शिव प्रकाश मिश्र
____________________
मूल कृत - १९७९, ६ नवम्बर १९७९ को दैनिक वीर हनुमान औरय्या में प्रकाशित 

कौन हूँ मैं ?

कौन हूँ मैं, कहाँ से गुजरता रहा ?
न पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?

एक चाहत लिए दावं रखता रहा ,
शह उनकी पे ही मात खाता रहा.
हार कर मैंने खोया नहीं हौसला,
जीत की हार होना नहीं फैसला.
आज ऐसा नवी बन गया अजनवी,
रोज़ जिसको हृदय में बिठाता रहा.
न  पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?.......१.


एक पागल पथिक सा फिर दर बदर,
कितनी मंजिल चली कुछ नहीं है खबर,
ताक पर आश सपने सजाता भी क्या ?
नीर पलको पे आँखें चुराता न क्या ?
आज ऐसी कहानी नहीं कह सका ,
शब्द जिसके लिए दूड़ता फिर रहा.
न  पूंछो अभी तक क्या करता रहा ?.......२.
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        - शिव प्रकाश मिश्र
           shive prakash mishra
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बुजर्गों की व्यथा

मैं पतझड़ का पेड़ हूँ,
छाया और हरित विहीन,
अपने आप टूट रहा हूँ.
अनगिनत आशाएं,
फूली फली कभी,
और अनगिनत बहारों में,
आये कितने ही फूल और  फल.
मोहक आकर्षण में ,
कितने ही पंथियों का था,
मै आश्रय स्थल.
बहारों के साथ,
काफिला खिसक गया.
प्यार और अपनापन भी ,
छूमंतर हो गया.
और अब है,
यहाँ वीरान.
मरघट सा सुनसान.
शायद
फिर कोई आये,
अपना हाथ बढाये,
प्रेम का दिया जलाये,
 और
मेरे  सूखेपन का श्राप
फलित कर  जाये.
इस आशा में,
थोडा सा ही सही
जमीन से जुड़ा हूँ मै,
और
प्रतीक्षा में
सूखा ही सही,
न जाने कब से,
खड़ा हूँ मै.
____________________
  - शिव प्रकाश मिश्र
____________________

क्षणिकाएं

(१)

प्रेम में     तुम्हारे है
यही मुझसे से अन्तर,
तुम  देखते हो   बाहर
मै देखता  हूँ अन्दर ..


(२)

एक बस कंडेक्टर ने
टिकेट बनाने में किया
 नया तरीका अख्तियार,
फर्स्ट ऐड बॉक्स पर
लिख दिया
" बिना टिकट यात्री होशियार".


++++++++++++++++++++
-  शिव प्रकाश मिश्र
-    S.P.MISHRA
++++++++++++++++++++

ऋतुराज बसंत .....(मधुमास)......

अरे तुम फिर आ गयी ऋतुराज,
                            
                       बहाती सुंदर सुरभि सुवास,
बिखेरा कैसा ये उन्माद,
                         लगाती हो मुझसे कुछ आश,
ओट में सुन्दरता के हो,
                             बुना है कैसा दुर्गम जाल,
फंस गए सब ही अपने आप,
                             टेक तेरे घुटुनो पर भाल,
रुचेगी  कैसे सुन्दरता,
                          रिस रहे जिसके घाव हरे
हो रहा हो काँटों से प्यार ,
                             उसे क्या गंध सुगंध करे,
चाहिए नहीं मुझे सुख चारू,
                           अगर हो निर्जन कोई ठौर,
रहूँगा भी कैसे मैं वहां
                           जहाँ हो मानवता ही गौड़,
बुझी हो आंसू से जो प्यास
                        न आएगा उसको मधु रास,
लगा दो अपना सारा जोर,
                      न होगा मुझको अब विश्वास ..

###########     शिव प्रकाश मिश्र    ###########

(मूल कृति दिसम्बर १९७९ - सर्व प्रथम दैनिक वीर हनुमान औरैय्या में प्रकाशित)

सपना....The Dream

रात्रि  सपने में जो देखा था,
वही रंग दिन में  उभर आया .
खामोशिया  गुदगुदी कर  गयी,
दिल में ही दर्पण सा नजर आया.
पवन के मात्र लघु झोंके से ,
सुगंधों का बड़ा तूफ़ान आया.
सौंदर्य की झलकियाँ  ऐसी कि,
चित्रकारों  पर तरस आया,
मुग्ध हो  भानु ने  जब देखा ,
धरा को नाचते पाया......

```````````````````````````````````
-   शिव प्रकाश मिश्र
-    S.P.MISHRA

Friday, February 19, 2016

वक़्त से पहले ....

भावनाएं जलती हैं,
 कभी ...
सिद्धांतो के संकुचित  घेरे में,

जैसे किसी प्रेमी का पत्र,

 दिन के अँधेरे में.

चूर चूर होता है व्यक्तित्व ,
या संपूर्ण अस्तित्व,
 जीवन में कई बार,

हल्की सी हिचकी

ले लेती है भूकंप का स्वरुप,

और आस्था के आयाम,

 लेते है एक नयी हिलकोर,

पतझड़ सी बिखरती है आशाए,
 और चुभते है काँटों से उपदेश,

फीके लगते है
सैद्धांतिक आदर्श,
 और अविस्मर्णीय अवशेष ,

दुखता है रोम रोम,
 अनजानी पीड़ा में ,

होते है  सूने सपने सुनहले,

 जब परम प्रिय सा
कुछ  खोता है,
अप्रत्यासित, 
अकाल्पनिक ,
 और वक़्त से पहले.
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शिव प्रकाश मिश्र
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छोटा सा बादल ......

स्मित मुस्कान हो,
लाल आसमान हो,
पलके उठे झुके,
लब थर थराए रुके,
पास तुम बैठी रहो,
लहराती आंचल ॥


गुल मोहर खिले कहीं

दो पल मिले कहीं
और एक साथ गिने
हृदय की धड़कने
चांदनी ढके रहे
छोटा सा बादल ॥ ॥

****शिव प्रकाश मिश्र ******

प्रेम बंधन .......

जिन्दगी के मोड़ ले आये कहाँ पर,
मै सुबह से शाम तक चलता गया.

कल्पना का इन्द्र धनुषी मधुर उपवन,

कर्मनाशा की लहर को छू  गया..

आग सी तपती क्षुधा की रेत पर,

कामना का बीज कोई बो गया.

आस्था के चाँद सीमित बिदुओं में,

सत्य खुद का ही बबंडर बन गया..

प्रेम के बंधन बंधे है रबर जैसे,

पास होकर दूर कोई कर गया..


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शिव प्रकाश मिश्र
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