Tuesday, February 23, 2016

बुजर्गों की व्यथा

मैं पतझड़ का पेड़ हूँ,
छाया और हरित विहीन,
अपने आप टूट रहा हूँ.
अनगिनत आशाएं,
फूली फली कभी,
और अनगिनत बहारों में,
आये कितने ही फूल और  फल.
मोहक आकर्षण में ,
कितने ही पंथियों का था,
मै आश्रय स्थल.
बहारों के साथ,
काफिला खिसक गया.
प्यार और अपनापन भी ,
छूमंतर हो गया.
और अब है,
यहाँ वीरान.
मरघट सा सुनसान.
शायद
फिर कोई आये,
अपना हाथ बढाये,
प्रेम का दिया जलाये,
 और
मेरे  सूखेपन का श्राप
फलित कर  जाये.
इस आशा में,
थोडा सा ही सही
जमीन से जुड़ा हूँ मै,
और
प्रतीक्षा में
सूखा ही सही,
न जाने कब से,
खड़ा हूँ मै.
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  - शिव प्रकाश मिश्र
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