Saturday, November 14, 2020

बाल दिवस : कर्णधार

 ऊपर से नीचे तक कोयला से लिसे  हुए,

                               सघन धूम्र बादलों में पटरियों पर झुके हुए,

मरने कटने से बेफिक्र  गाड़ियों में घुसे हुए
                                छानते हैं खाक, खांस कोयला उठाते हुए ,
या फिर बस्ती से दूर, होते हैं जहां गंदगी के ढेर,
                                   चीथड़े  लपेट,  वही   चीथड़े  उठाते हैं, 
घाव को मक्खियों से फटे कपड़ों  में बचाते हुए,
                                         गंदगी कुरेद कांच कागज उठाते हैं,
कबाड़ के साथ साथ  हैजा और तपेदिक भी
                                आते हैं लेकर साथ मजबूरियों से घिरे हुए,
चौराहों पर कई बार होती जब बत्ती लाल,
                    दौड़ते हैं एक साथ साफ करने मोटर कपड़ा लिए 
या फिर छोटे बड़े होटलों में,  करते हैं बर्तन   साफ,
                     बची हुई जूठन और मालिक की मार कई बार खाते हैं,
जोड़ते हैं पंचर,  या फिर कसते हैं नट बोल्ट,
                  करते हैं काम, फिर भी पुर्जों  के साथ आंखें भी पोंछते हैं,
करते हैं घर का काम बर्तन से झाड़ू तक,
                               मालिकन  के पैर दबाकर बच्चे भी खिलाते हैं,
बच्चों को करने लेने स्कूल तक जाते रोज,
                             पर स्कूल तक जाकर  भी निरक्षर  रह जाते हैं,
बेबस जिंदगी के सताये,  उमंगों से डरे हुए,
                  दलित शोषित सभ्यता से परे कौन बच्चे हैं ये आप सोचेंगे,?
तो सुनो ये हैं  कर्णधार भारत स्वाधीन के,
                      अपने समाज में कहीं भी जाएं आप,  हर जगह मिलेंगे.
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                               -  शिव मिश्रा 
                                   मूलकृति १४ नवम्बर १९७६ 
                                अमर उजाला आगरा में प्रकाशित 




Wednesday, September 23, 2020

तुम इतना क्यों तिलमिला रहे हो ?

 

जया बच्चन जी को समर्पित


तुम इतना क्यों तिलमिला रहे हो ?

क्या राज है जो छुपा रहे हो?


भैया हमारे थे तों शराबी,

पान बनारस का खा रहें  हैं ,

भंग के रंग में घूम-घूम कर,

ठुमके भी  खूब लगा रहें  हैं, 

कौन है वे  जो ड्रग्स ले रहे हैं?

तुम उनको क्योंकर  बचा रहे हो?....१.


तुम्हारे दलदल के एक  नेता,

जो जेल में चैन फरमा रहे हैं,

रंग जांघिया  जयाप्रदा का ,

बता बता मुस्कुरा रहे हैं,

छलनी  है ये  तुम्हारी  दुनिया,

थाली जिसे तुम बता रहे हो ? 


स्मृति ईरानी को भी नचनिया ,

बता दिया था वहीं किसी ने,

तुम चुप रही जब कंगना को,

हरामखोर बोला था  किसी ने,

उचित नहीं  है संसद के सदन  से,

तुम सबको क्यों  धमका रहे हो ?...३.


नहीं रही वह अब फिल्मी दुनिया,

ना  ही गुड्डी  न  चक्कू छुरिया,

अब हैं पीके बजरंगी भाईजान,

शान हो गया, माय नेम इज खान,

कितना सहेगा अब और हिंदू,

क्यों धर्म  मोहरा बना रहे हो ?...४.



बने नास्तिक, शिकवा नहीं है ,

786  प्रेम  पर अचरज नहीं   है ,

पूछती हैं खता क्या है राम लला की,

मजारों  से सब चादरें  बच्चनों की ?

बने  भव्य मंदिर अयोध्या में जिनका,

तुम  क्यों नहीं  कुछ कह पा रहे हो ?.. ५..

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******** शिव प्रकाश मिश्रा ********

                 २२ सितम्बर २०२० 


Saturday, May 9, 2020

कोरोना : को (ई ) रो (ये) ना

कभी जिसे,

स्वीकार न कर पाया, 

वह आज अपने आप, 

समझ में आया, 

न कोई अपना है,

और

न कोई पराया,

व्यर्थ  है मोह,

मिथ्या है सब माया,

वे  सब अपने हैं,

जो हमें अपना मानते हैं,

आखिर-

अपनेपन का अहसास

तो हम सभी जानते हैं,

अब तक,

क्या खोया?

और

क्या पाया?

इस कोरोना  संकट  ने, 

अच्छी तरह से समझाया,

जीवन की चाहत ने,

और

चाहत के भय ने,

कितने ही अपनों को, 

अपनों ने ठुकराया,

ये सही है,

दिखाई  दी है,

कहीं कहीं, 

एकजुटता,

और 

पारिवारिक समरसता,

पता नहीं,

ये अनजाना भय है ?

या सचमुच एकात्मता  ?

बहुत सोचा,

समझा,

और  निर्णय किया,

जल्दी- जल्दी 

पलायन किया,

दूर दराज से,

अपने अपने काम से,

अनजाने  भय से,

चलों...!

लौट चलते हैं , 

जहाँ मां है,

ममता है,

प्यार है, 

परिवार है,

शायद

यही संसार है,

और 

सुरक्षा कवच भी है यही,

पर ये बात भी है,

बिलकुल सही, 

कि

जीविका यहाँ है नहीं, 

पर जीवन !

उतना परेशान नहीं,

मिल बैठ कर करेंगे, 

उन समस्याओं के हल,

जो हैं तो बहुत  छोटी 

पर हैं बहुत मुश्किल.

शायद

इस संकट में ही छिपा हो ?

हर संकट का समाधान, 

चलो !

शुरू करें,

एक नया अभियान ..  

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- शिव मिश्रा 

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८ मई २०२० 


Friday, May 1, 2020

एक कंधे की चाहत

क्या कभी कोई
अपना सिर
अपनी ही गोद में रख कर सोया है ?
या 
अपना सिर
अपने ही कंधे पर रख कर रोया है ?
क्यों ? 
कोई ?
नहीं  चाहता कभी,
अपना सुख दुःख,
स्वयं में समेटे रखना,
अपने में जीना,
अपने में मरना, 
और गुमनामी लपेटे रखना,
क्यों ?
इसीलिए
क्या 
रिश्ते  जन्म लेते हैं ?
और
हमेशा  अहम् होते हैं ?
रिश्ते, 
अंकुरित होते हैं ?
उगते हैं ?
पनपते हैं ?
बनते हैं ?
या प्रकट होते हैं ?
पता नहीं,
क्यों ?
परन्तु 
हमेशा अच्छे लगते हैं,
और जरूरी भी,
क्यों ?
शायद..कुछ को 
हम कभी नहीं समझते,
और कोशिश,
भी नहीं करते. 
भटकते है, 
लिये  
एक कंधे की चाहत,  
और
अपना कन्धा खाली रखने की आदत,  
क्यों ?
बने रहना चाहते हैं हम ,
बीज
सब  आत्मसात हैं जिसमे,
ऐसा रिश्ता, 
जड़, तना और पत्ते
सब साथ साथ है जिसमे,
क्यों ?
फिर सब मिल बनाते है 
एक  नन्हा पौधा,
बढ़ना जिसकी  नियति है,
और
बढ़ कर दूर दूर हो जाना,
या
दूर दूर होकर  बढ़ जाना,
जिसकी परिणित है,
क्यों ?
दोहराया जाता है, 
बार बार -
ये  इति हा आस  ? 
'इतिहास'  जो  नहीं है.
******************
 -  शिव प्रकाश मिश्रा
  

Sunday, March 22, 2020

आपका काम तमाम

चुनाव प्रचार में, 

बोले एक नेता,
बेरोजगार मैं भी हूं,
मुसीबतों का मारा हुआ,
काम जब मिला नहीं, 
चुनाव में खड़ा हुआ.
मेरी हालत पर, 
सब लोग रहम कीजिए, 
वोट ना सही, चंदा ही दीजिए
आपकी सब बातें, 
अक्सर भूल जाता हूं,
पर आप का चुनाव चिन्ह, 
याद दिलाता हूं
कोचिंग दलबदल की, 
अच्छी चलाता हूं,
कुछ नहीं दे सका, 
विश्वास तो  दिलाता हूं,
नौकरी नहीं,
तो आरक्षण जरूर दूंगा,
आप मेरा काम करिये,
"आपका काम तमाम" 
कर दूंगा
***************
- शिव प्रकाश मिश्रा 
***************
मूल कृति १२ जुलाई १९७९ 
(प्रथम प्रकाशित दैनिक वीर हनुमान औरैय्या )

भीड़


चारों तरफ भीड़ है,
मनुष्यों का रेला,
सड़कों पर बिखरा है
शोरगुल में खड़ा हूँ मैं ,
किसी को पुकारता हूं,
पर -
मेरी आवाज शोर में घुल रही है ,
शायद कोई नहीं सुन सकता,
रूप, रंग,गंध और बोली-भाषा ,
सब नकली है,
कोई नहीं मिल सकता,
नहीं समझता,
सब ये  कैसे करते हैं ?
इतनी बनावट
और इतनी मिलावट ,
कैसे सहते  हैं ?
नहीं चाहता,
कोई मुझे प्यार करें,
पर मेरी भावनाओं का,
तिरस्कार न करें,
जरूरी नहीं,
कोई  मेरा अनुयायी हो,
मैं भी चल सकता हूँ ,
उसके पीछे,
उसके साथ,
कोई भी हो ?
जो मुझे समझे,
और समझाये,
पर -
व्यर्थ  के विचार मुझ पर न लादे,
क्योंकि -
मुझे रोशनी चाहिए
सिर्फ चमक  नहीं ....
******************
 -  शिव प्रकाश मिश्रा
******************
           मूल कृति १८ फरवरी, १९८३ 
(सर्व प्रथम स्वंतंत्र भारत कानपुर  में प्रकाशित) 

लक्ष्मण - रेखा


आज में उपेक्षित हूं,
समाज के घेरे से,
बाहर खड़ा,
क्षुब्ध हो सोंचता हूं,
कितनी बिषैली,
पर वास्तविकता  है ये ,
विष्मय,
विषाद,
या उपेक्षा में सोचता हूं,
भावनाओं में,
कुछ  ज्यादा ही बह गया था मैं ,
या किसी ने अपने विचारों में,
जान बूझ कर,
इतना ऊंचा उठा दिया था,
कि गिर कर
मैं उठ भी न सकूं,
और उनकी ज्यादितियों  का,
प्रतिकार भी न कर सकूँ,
मैं गिरा तो जरूर,
पर चल पड़ा उठ कर,
शीघ्र ही,
मै तैयार था इसलिए , 
जो हुआ उसके लिए, 
तभी तो मेरा,
तिरस्कार हुआ है,
मेरी  हर हसरत  पर,
उन्हें संसय  है,
कहीं मैं,
कोई वितंडा न बना दूं ?
उनके कलमस की कहानी,
ओंठों पर न ला दूं,
तभी तो करते हैं,
हर रोज,
एक नई व्यूह रचना,
क्या  यही लक्ष्मण  रेखा है ?
यो कोरी विडम्बना ?
****************
 - शिव प्रकाश मिश्रा
****************
       मूल कृति १७ अप्रैल १९८१
( सर्वप्रथम दिनरात इटावा में  प्रकाशित)


भविष्य ......


कैसे मुस्कान हो ?
निरद्वेग अधरों पर,
बादलों सा मिलना,
निकलना भी छूट गया .

जीवन के कतिपय अंश,
स्वस्ति के लिए हव्य,
आशातीत बेड़ा एक,
सपना सा टूट गया ..

कच्ची पगडंडी सी,
किस्मत की रेखाएं,
धूमिल आशाओं में,
वर्तमान भटक गया.

अतीत के दलदल में
डूबती रहीं तस्वीरें ,
कल्पना का यान,
जीर्ण दूब में अटक गया ..

शक्ति के समन्वय में,
शान्ति के प्रणेता से,
वर्षों का खोटा सिक्का,
 गांठ से निकल गया ..
********************

- शिव प्रकाश मिश्रा
*******************
मूल कृति १० सितम्बर १९८०
(सर्व प्रथम स्वतंत्र भारत कानपुर में पकाशित )

पहली बात ...आख़िरी बार .

मर चुका हूं मैं,
कभी का,
मातम नहीं मनाता कोई,
जिज्ञासु सा,
खुद रो रहा हूं,
ढांढस नहीं बंधाता कोई,
मेरी लाश,
न जाने कब से ?
अकेली पड़ी है,
सुनते सभी हैं,
समझते सभी हैं,
पर
जरूरत क्या पड़ी है?
जो कोई
निस्वार्त के पास आए,
मनुष्यत्व,
अपनत्व,
या कोरी औपचारिकता,
ही निभाये,
और
मेरी लाश पर,
मेरा ही कफन ओढ़ाए,
यद्यपि
हमें कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर
हमारा.. उनसे ?
कोई योग तो नहीं है,
कहते हैं वे,
“सिरफिरा हूं मैं” ,
यद्यपि उनके लिए ही
मरा हूं मैं,
और
फिर मर सकता हूं,
कई बार उन सबके लिए,
पर
क्या ?
कोई ?
उनके लिए,  
जीने की कल्पना कर सकता है?
अपने लिए ?
*********
शिव प्रकाश मिश्रा
मूल कृति २८ जून १९८०