मर
चुका हूं मैं,
कभी
का,
मातम
नहीं मनाता कोई,
जिज्ञासु
सा,
खुद
रो रहा हूं,
ढांढस
नहीं बंधाता कोई,
मेरी
लाश,
न
जाने कब से ?
अकेली
पड़ी है,
सुनते
सभी हैं,
समझते
सभी हैं,
पर
जरूरत
क्या पड़ी है?
जो
कोई
निस्वार्त
के पास आए,
मनुष्यत्व,
अपनत्व,
या
कोरी औपचारिकता,
ही
निभाये,
और
मेरी
लाश पर,
मेरा
ही कफन ओढ़ाए,
यद्यपि
हमें
कोई संक्रामक रोग नहीं है,
पर
हमारा..
उनसे ?
कोई
योग तो नहीं है,
कहते
हैं वे,
“सिरफिरा
हूं मैं” ,
यद्यपि
उनके लिए ही
मरा
हूं मैं,
और
फिर
मर सकता हूं,
कई
बार उन सबके लिए,
पर
क्या
?
कोई
?
उनके
लिए,
जीने
की कल्पना कर सकता है?
अपने लिए ?
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शिव
प्रकाश मिश्रा
मूल
कृति २८ जून १९८०
अपने लिए ?
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