आज
में उपेक्षित हूं,
समाज
के घेरे से,
बाहर
खड़ा,
क्षुब्ध
हो सोंचता हूं,
कितनी
बिषैली,
पर
वास्तविकता है ये ,
विष्मय,
विषाद,
या
उपेक्षा में सोचता हूं,
भावनाओं
में,
कुछ
ज्यादा ही बह गया था मैं ,
या
किसी ने अपने विचारों में,
जान
बूझ कर,
इतना
ऊंचा उठा दिया था,
कि
गिर कर
मैं उठ भी न सकूं,
और
उनकी ज्यादितियों का,
प्रतिकार
भी न कर सकूँ,
मैं गिरा तो जरूर,
पर चल पड़ा उठ कर,
शीघ्र ही,
मै तैयार था इसलिए ,
जो हुआ उसके लिए,
तभी
तो मेरा,
तिरस्कार
हुआ है,
मेरी
हर हसरत पर,
उन्हें
संसय है,
कहीं
मैं,
कोई
वितंडा न बना दूं ?
उनके
कलमस की कहानी,
ओंठों
पर न ला दूं,
तभी
तो करते हैं,
हर
रोज,
एक
नई व्यूह रचना,
क्या
यही लक्ष्मण रेखा है ?
यो
कोरी विडम्बना ?
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मूल कृति १७ अप्रैल १९८१
( सर्वप्रथम दिनरात इटावा में प्रकाशित)
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