Sunday, March 22, 2020

लक्ष्मण - रेखा


आज में उपेक्षित हूं,
समाज के घेरे से,
बाहर खड़ा,
क्षुब्ध हो सोंचता हूं,
कितनी बिषैली,
पर वास्तविकता  है ये ,
विष्मय,
विषाद,
या उपेक्षा में सोचता हूं,
भावनाओं में,
कुछ  ज्यादा ही बह गया था मैं ,
या किसी ने अपने विचारों में,
जान बूझ कर,
इतना ऊंचा उठा दिया था,
कि गिर कर
मैं उठ भी न सकूं,
और उनकी ज्यादितियों  का,
प्रतिकार भी न कर सकूँ,
मैं गिरा तो जरूर,
पर चल पड़ा उठ कर,
शीघ्र ही,
मै तैयार था इसलिए , 
जो हुआ उसके लिए, 
तभी तो मेरा,
तिरस्कार हुआ है,
मेरी  हर हसरत  पर,
उन्हें संसय  है,
कहीं मैं,
कोई वितंडा न बना दूं ?
उनके कलमस की कहानी,
ओंठों पर न ला दूं,
तभी तो करते हैं,
हर रोज,
एक नई व्यूह रचना,
क्या  यही लक्ष्मण  रेखा है ?
यो कोरी विडम्बना ?
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 - शिव प्रकाश मिश्रा
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       मूल कृति १७ अप्रैल १९८१
( सर्वप्रथम दिनरात इटावा में  प्रकाशित)


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