आतंकी प्यास
प्यास से व्याकुल एक व्यक्ति ने
एक घर का दरवाजा खटखटाया.
एक कविनुमा चेहरा बाहर आया,
जिसे देखकर वह व्यक्ति बोला
‘प्यासा हूँ, अगर.... पानी.....,'
“हाँ हाँ क्यों नहीं” कहकर कवि ने,
ड्राइंग रूम में बैठाया,
खुद बैठ कर बोला-
कल भी मैं प्यासा था,
आज भी मैं प्यासा हूँ,
सब कुछ आसपास है,
फिर भी दिल उदास है,
न जाने कैसी प्यास है?
प्यासे व्यक्ति को बात समझ नहीं आयी,
कवि ने बात थोड़ा आगे बढ़ायी,
"वह था, ग्यारह सितंबर,
अमेरिका पर आतंकी कहर,
उसी के अपह्रत विमानों को
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से टकरा दिया,
एक सौ दस मंजिली बिल्डिंग को
धूल में मिला दिया,
हजारों सिसकियां मलबे
में दफन हो गयीं
समूचे विश्व की आत्मा दहल गयी,
कौन थे हमलावर? क्या उद्देश्य था?
न इसका आभास है,
न जाने कैसी प्यास है?"
प्यासा व्यक्ति घबराया,
उसे लगा कि कवि उसकी बात समझ नहीं
पाया,
उसने सोचा विज्ञापन की भाषा में समझायें,
शायद समझ जायें,
यह सोचकर बोला “ये दिल मांगे मोर”
कवि ने कहा “श्योर”
और बोला -
वे पूरी दुनिया की करते थे निगरानी,
पर अपने घर की बात न जानी,
चार चार विमान एक साथ अपहृत हो गये,
दुनिया की सुरक्षितम पेंटागन पर हमले
हो गये,
अब आतंकी साये में आतंकियों की तलाश है,
न जाने कैसी प्यास है?
प्यासा व्यक्ति चिल्लाया- “ओह नो”
कवि बोला “यस”
इतिहास गवाह हैं,
जो भस्मासुर बनाता है,
वह उसी के पीछे पड़ जाता है.
आतंकवाद का दर्द भी
तभी समझ में आता है,
जब कोई स्वयं इसकी चपेट में आता है,
आतंकवाद से लड़ने के लिए
वे उसी के साथ खड़े हैं,
जिसके तार आतंकवादियों से जुड़े हैं,
आतंकवाद से लड़ने का यह अधूरा प्रयास
है.
न जाने कैसी प्यास है?
प्यासा व्यक्ति निढाल हो
सोफे पर लुढ़क गया,
यह देख कवि पत्नी का,
हृदय पिघल गया,
बोली -
न आप अमेरिका हैं, न पाकिस्तान,
न रूस हैं, न अफगानिस्तान,
आप भारत हैं,
और भारत को,
दूसरों की आश छोड़नी होंगी,
और आतंकवाद के खिलाफ़,
अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी,
इस विचारे को नाहक सता रहे हो.
पानी की जगह कविता पिला रहे हो.
ये मूर्छित व्यक्ति कोई और नहीं,
स्वयं ओसामा बिन लादेन है,
क्या इसका तुम्हें एहसास है?
न जाने कैसी प्यास है?
न जाने
कैसी प्यास है?
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- शिव मिश्रा
( मूल कृति २ अक्टूबर 2001)
हम दोस्त पत्रिका में प्रकाशित