Saturday, March 21, 2020

दो आंखें




दो आंखें,
निरन्तर,
मेरा पीछा करती हैं. 
हड़बड़ाहट और बेचैनी में, 
अधजली सिगरेट सी,
छोड़ देता हूं,
अपनी यादें,
रह रह कर,
जो मेरे अन्दर बुझती है,
और
फिर सुलगती है.
मसल देता हूँ ,
कभी  खुद ही उन्हें,
अपलक  चाहता हूं निहारना,
दिन में कई बार जिन्हें,
धुएं की तरह खो जाती है,
उनकी बहुमूल्य जवानी,
स्वतन्त्र अस्तित्व,
और बिखर जाती है,
सजी संवरी  कहानी,
शब्दों की सांत्वना में मिलती हैं, 
समाज की भोंड़ी  सलाखें,
मूक हूँ,
निगूढ़ हूँ,
वहीं खड़ा हूँ,
मैं,
और मेरे पीछे हैं
दो  आंखें..
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      - शिव प्रकाश मिश्रा 
        मूल कृति - २८ मई १९८० 

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