Saturday, May 9, 2020

कोरोना : को (ई ) रो (ये) ना

कभी जिसे,

स्वीकार न कर पाया, 

वह आज अपने आप, 

समझ में आया, 

न कोई अपना है,

और

न कोई पराया,

व्यर्थ  है मोह,

मिथ्या है सब माया,

वे  सब अपने हैं,

जो हमें अपना मानते हैं,

आखिर-

अपनेपन का अहसास

तो हम सभी जानते हैं,

अब तक,

क्या खोया?

और

क्या पाया?

इस कोरोना  संकट  ने, 

अच्छी तरह से समझाया,

जीवन की चाहत ने,

और

चाहत के भय ने,

कितने ही अपनों को, 

अपनों ने ठुकराया,

ये सही है,

दिखाई  दी है,

कहीं कहीं, 

एकजुटता,

और 

पारिवारिक समरसता,

पता नहीं,

ये अनजाना भय है ?

या सचमुच एकात्मता  ?

बहुत सोचा,

समझा,

और  निर्णय किया,

जल्दी- जल्दी 

पलायन किया,

दूर दराज से,

अपने अपने काम से,

अनजाने  भय से,

चलों...!

लौट चलते हैं , 

जहाँ मां है,

ममता है,

प्यार है, 

परिवार है,

शायद

यही संसार है,

और 

सुरक्षा कवच भी है यही,

पर ये बात भी है,

बिलकुल सही, 

कि

जीविका यहाँ है नहीं, 

पर जीवन !

उतना परेशान नहीं,

मिल बैठ कर करेंगे, 

उन समस्याओं के हल,

जो हैं तो बहुत  छोटी 

पर हैं बहुत मुश्किल.

शायद

इस संकट में ही छिपा हो ?

हर संकट का समाधान, 

चलो !

शुरू करें,

एक नया अभियान ..  

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- शिव मिश्रा 

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८ मई २०२० 


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