Wednesday, July 12, 2023

बच्चे बड़े हो गए



सुबह उगती है, 
और शुरू हो जाती है,

चहचहाहट घोंसले में,

जो मेरे बगीचे में लगा है,

और जिसे मैं देखता हूँ ,

खिड़की से झांक कर हर रोज.

शाम को फिर बढ़ जाती है

हलचल चहचहाने की,

आहट भी नहीं होती है,

रात गहराने की.

हर दिन ऐसे ही शुरू होता है,

और हर रात भी
कुछ  इसी तरह.

पता नहीं, इनके पास हैं

कितनी खुशियाँ ?

अनमोल पल ?

कितनी तरंगे ?

कितनी उमंगें ?

इनके ऊर्जा पातृ  जैसे अक्षय हो गए हैं,

हर चीज को मानो पंख लग गए हैं.

एक जोड़ा चिड़ियों का और

उनके दो छोटे बच्चे,

यही सब उनका पूरा संसार बन गए हैं .

जो  देतें हैं अविरल, अतुल अहसास ,

जैसे श्रृष्टि का सृजन और क्रमिक विकाश.

हर तरफ हरियाली, मनमोहक हवाएं

स्वच्छ खुला नीला आकाश,

अबोध-विस्मय, तार्किक-तन्मय ,

संयुक्त आल्हाद और अति विश्वास.

स्वयं का ,

प्रकृति का,

या परमात्मा का,

पता नहींपर  

न गर्मी का गम, न चिंता सर्दी की,

न बर्षा का भय, न आशंका अनहोनी की,

व्यस्त और मस्त हरदम,

बच्चों के साथ,

जैसे बच्चे ही जीवन हैं, 

उनका,

बच्चों का पालन पोषण,

हर पल ध्यान रखना,

बड़े से बड़ा करना,

लक्ष्य है उनके जीवन का,

सोना, जागना, खेलना, कूदना,

उनके साथ,

खुश रखना,

खुश रहना साथ साथ,

उनके बचपन में समाहित करना,

अपना जीवन,

पुनर्परिभाषित और पुनर्निर्धारित करना,

खुद का बचपन,

कितने ही मौसम आये, गए,

समय के बादल भी उमड़े घुमड़े

और बरस कर चले गए.

खिड़की से बाहर बगीचे में,

अब, जब मैं झांकता हूँ,

तो पाता हूँ,

घोंसले हैं,

कई हैं ,

आज भी,

और चहचहाहट  भी,

उसी तरह कुछ कुछ ,

पर  सामान्य नहीं है,

सब कुछ,

उस घोंसले में,

जिसे मैं लम्बे समय से देखता आया हूँ,

जिसकी चहचहाहट शामिल थी,

मेरी दिनचर्या में,

जिसकी यादें आज भी रची बसीं हैं ,

मेरे अंतर्मन में,

ऐसा लगता है,

जैसे मैं स्वयं अभिन्न हिस्सा हूँ,

उनके जीवन का,

और उस घोंसले का,

या वे सब और वह घोंसला,

यथार्थ  है, 

मेरे जीवन का.

आज भी जीवित है,

चिड़ियों का वह प्रौढ़ जोड़ा,

और रहता भी है,

उसी  घोंसले में,

जहाँ अब चहचहाहट नहीं है,

कोई हलचल भी नहीं है. 

चलते, फिरते,

उठते बैठते,

झांकता हूँ मैं,

बार बार उसी घोंसले में,

जहाँ अब बच्चे नहीं हैं,

मूक दृष्टि से पूंछता हूँ मैं,

जब इस जोड़े से,

जो मिलते हैं यहाँ वहां बैठे हुए,

गुमसुम, बहुत शान्त और उदास से,

उनकी खामोश निगाहें,   

कहती हैं बड़ी बेचैनी से,

बच्चे बड़े हो गए",

 "... बहुत दूर हो गए",   

 "अब तो उनकी चहचहाहट भी यहाँ नहीं आती है

"आती है तो सिर्फ उनकी याद आती है"  

बहुत व्यथित हूँ , 

विचलित हूँ

और सोचता हूँ,

जैसे कल की ही बात है,

सारा घटनाक्रम आत्मसात है  

पर मुठ्ठी में बालू की तरह,

समय को भी कोई संभाल सका है भला ?

पता ही नहीं चला.....

कब .....?

बच्चे बड़े हो गए.
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-           - शिव प्रकाश मिश्रा 

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